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Showing posts from 2020
मैं शब्दों को कई बार तोडूंगा- मरोडूंगा और निकालूंगा उनमें से कई अर्थ जिसे हर पढ़ने वाला अपने मुताबिक़ ले जाएं और काम ले लें अपनी जीवन शैली बेहतर बनाने के लिए मैं इनको काले रंग से भिगो दूंगा जिससे नहीं चढ़ पाए कोई एक तरफा रंग, ये बना ले सभी रंगो को अपने जैसा काला या कस्तूरी जैसा काला मैं इन्हें गन्ने की तरह पीलता रहूंगा और निकाल लूंगा एक - एक बूंद रस फिर तुम्हारी जुबां पर फैलाऊंगा मिठास ही मिठास मिठास और केवल मिठास भरत राजगुरु

एक आदमी चला इतना चला,

एक आदमी चला इतना चला, दुनिया से आगे निकल गया , पर घर नहीं पहुंचा एक आदमी चला राजा था, मंत्री थे संत्री थे, सेनानायक था, सेना थी, जननायक थे, जनसेवक थे, समाज सेवक थे, कर्तव्यनिष्ट थे, कर्तव्यपरायण थे, सब साथ चले पर बराबर नहीं चल सके, आदमी अकेला ही था एक आदमी चला इतना चला दुनिया से आगे निकल गया एक आदमी चला सड़के थी, गाड़ी थी, ड्राइवर था, देश था, राज्य था, जिले थे, शहर था, गांव था, घर था अपने थे, पड़ोसी थे सब साथ चले पर बराबर नहीं चल सके, आदमी अकेला ही था एक आदमी चला इतना चला दुनिया से आगे निकल गया एक आदमी चला वह पहुंच गया सृष्टि के उस पार जीवन भर साथ चलने वाले लोगों को देखने देखने कि कब तक साथ चले Bharat Singh

क्यों तो कोई सृष्टि तुम पर रहम करें

क्यों तो कोई सृष्टि तुम पर रहम करें या तो अपनी सांस रोककर खुद मर जाएं या फिर तोड़ फ़ेंक दे इब्ने-आदम के सींगों को नाखूनों को तोड़- कुचलकर खाद बनाए, दांतो को रहने दें बाजारों में बिकने, या तो अपने पंख नोंच ले तोड़ फोड़ दे अपनी सुन्दरता के सपने या फिर खुद ही खा ले गहरी दीमक को फड़फड़ करते कंकालों से प्राण खींच ले और फूंक दे केवल कच्ची कलियों में या फिर पुष्पों के यौवन में या पानी की धारा में क्यों तो कोई सृष्टि तुम पर रहम करें या तो अपनी सांस रोककर खुद मर जाएं भरत राजगुरु Bharat RajGuru
एक पिता की अपने बच्चों के प्रति त्यागशीलता का अनुमान कई साधकों को जानकर भी नहीं लगाया जा सकता है* इंसान बड़ा होने पर अपने जीवन से संबंधित कई सपने देखता है और वह सपने बचपन के सपनों की तुलना में इतने छोटे होते हैं कि उनका बोझ बहुत आसानी से ढोया जा सकता है यहां मैं बात उन सपनों की कर रहा हूं जो हमने बचपन में देखे हैं और उन्हें पूरा करने के लिए हमारे पापा ने भरसक प्रयास ही नहीं वरन् पूरा भी किया है चाहे उन सपनों की कीमत कुछ भी रही हो, उनके जवान कंधों पर केवल हमारे शरीर का ही न हीं बल्कि हमारे उन खिलते हुए सपनों का भी बोझ होता था जो हम नादानी में देखा करते थे आज हम बड़े हो गए हैं और हमारे छोटे छोटे सपने पूरे करने के लिए हमें दिन रात पसीना बहाना पड़ता है, एक छोटे सपने के लिए न जाने कितनी कीमत चुकानी पड़ती है कितनी रातें खराब करनी पड़ती है मुझे आज भी याद है कई बार मैंने अनावश्यक चीजों के लिए कुछ पलों के लिए नाटकीय आंसू बहाए होंगे और वह चीज अनायास ही मेरे हाथ लग जाती, तब समझ में नहीं आता था लेकिन बड़े होने पर पता चला कि अनायास ही हाथ लग जाने वाली चीज के लिए पिता ने क्या क्या कष्ट सहे होंगे